तू रिवायत सी क़ुरबत होने लगी है धीमी धीमी शाम सी ढलने लगी है मैं महसूस कर लूँ तुझको ख़्वाबीदा मगर तू ताबिर बन फिर एक दफ़ा फिसलने लगी है ।
तेरे मयस्सर होने से इनायत तो होगी हर्फ़ जो मेरे सारे आज इज़्तिरार होगी फिर तेरे बगेर सिफ़ार ये क्या है मूसलसल होगी तो बस ये फ़ुरकत होगी
तू बन के शिकस्त मुझे परेशान कर के अर्स तक साथ साथ चलने लगी है तू रिवायत सी क़ुरबत होने लगी है धीमी धीमी शाम सी ढलने लगी है मैं महसूस कर लूँ तुझको ख़्वाबीदा मगर तू ताबिर बन फिर एक दफ़ा फिसलने लगी है ।
तू उल्फ़त की गुज़ारिस है ये माना मुक़द्दस तेरी हर तोहमत होगी महबूब ये तेरी दामन तेरा आँचल से मगर महरूम मेरी हर जुस्तजू होगी
तू फ़क़त लम्स ख़लिश का हो कर के शफाक सी इख़्तिताम बदलने लगी है तू रिवायत सी क़ुरबत होने लगी है धीमी धीमी शाम सी ढलने लगी है मैं महसूस कर लूँ तुझको ख़्वाबीदा मगर तू ताबिर बन फिर एक दफ़ा फिसलने लगी है ।